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गुरुवार, 9 सितंबर 2010

जलवे पुलिस के


आज-कल अगर जलवे हैं तो वो सिर्फ पुलिस वालों के हैं। कोई भी उनको चुनौती देने को तैयार नही है। वैसे तो इन्हे जनता का रक्षक कहा जाता है । पर सोचिये अगर रक्षक ही भक्षक बन जाये तो क्या होगा।
जी हाँ, ये जो आप चित्र में रेलवे प्लेटफार्म का सुन्दर सा दृश्य देख रहे है, ये नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के एक प्लेटफार्म का दृश्य है। चित्र उतना स्पष्ट नही है फिर भी आपको चित्र में दिखाई दी जाने वाली वास्तविकता से अवगत कराता हूँ।
प्लेटफार्म से लेकर चित्र के अन्त तक आपको लोगों की एक लाइन दिख रही होगी, साथ मे नीले गोले में आपको एक पुलिस वाले साहब दिख रहे होगें। दरासल, इस प्लेटफार्म पर एक बिहार से सम्बन्धित ट्रेन लगने वाली है, औऱ इस ट्रेन में चढने वाले जनरल टिकट के यात्रियों की संख्या काफी अधिक है। सीधी-सी बात है ट्रेन में जाने वाले यात्रियों की संख्या काफी अधिक है और जनरल डिब्बों की संख्या कम , तो इस समस्या से निपटने के लिए यहाँ पुलिस वालों की ड्यूटी भी लगा रखी गयी है। कुछ ही पलों में ट्रेन प्लेटफार्म मे लग जाती है। ट्रेन के प्लेटफार्म में लगते ही सबसे पहले पुलिस वालों नें इन लोगो को एक लाइन में खङा कर दिया, दूर से देखने में लगाकि ये जनता के रक्षक भीङ से निपटने के लिए व्यवस्थित ढंग से यात्रियों को ट्रेन के जनरल डिब्बे में बैठा देगें। मगर ये क्या, ट्रेन के 3 जनरल डिब्बों के हर एक प्लेटफार्म गेट पर पुलिस वाले पहले से ही खङे हो गये और डिब्बे के वे गेट जो प्लेटफार्म की तरफ न होकर रेलवे लाइन की ओर थे, उन्हें पहले से ही बंद कर दिया गया, जिसके की कोई भी यात्री डिब्बे के दूसरे गेटों से अन्दर न आ सके। अब जनता के इन रक्षकों ने लाइन में लगे यात्रियों से एक-एक कर डिब्बे में आने को कहा। एक-एक कर यात्री डिब्बे के अन्दर जाने लगे और इन यात्रियों से एक-एक कर रकम वसूल की जाने लगी। बेचारे यात्री क्या करते, वे भी इन पुलिस वालों को वसूली की रकम देने लगे। यद्यपि इन सभी यात्रियों के पास यात्रा टिकट थे।
बात यही नही खत्म होती है, डिब्बा जैसे ही यात्रियों से फुल भर गया, वैसे ही पुलिस वाले डिब्बे से नीचे उतर गये औऱ प्लेटफार्म में बचे यात्रियों को (यात्री संख्या लगभग 150-200) ऐसे ही डिब्बे में घुस जाने की इजाजत देदी, क्योंकि तबतक इनकी जेब काफी गरम हो चुकी थी और वे इन यात्रियों को अपने हाल मे छोङकर दूसरी ट्रेंन में वसूली करने के लिए एक अन्य प्लेटफार्म मे जा चुके थे।
वैसे पुलिस का हर एक कर्मचारी एक जैसे नही होता है। कुछ पुलिस वाले तो अच्छे व्यक्तित्व के तथा सज्जन भी होते हैं। मगर सोचिये अगर सभी पुलिस के जवान इन जैसे हो गये तो देश का क्या हाल होगा। इसका उत्तर जनता पर ही छोङ देना बेहतर होगा।

रविवार, 5 सितंबर 2010

गुरू दिवस


ज्ञान दे संस्कार दे,

औऱ बनाये शिष्यों का जीवन चमन
शीश झुकाकर करते हैं हम-सब,
ऐसे गुरू-देव को शत्-शत् नमन।

हर बर्ष की तरह इस बार भी भारत के भूतपूर्व राष्ट्रपति डाँ0 सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्मदिवस के दिन यानि 5 सितम्बर को पूरे भारतवर्ष में शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जा रहा है।
वास्तव में यह दिन गुरू-शिष्य के पवित्र रिश्ते को उजागर करता है। लेकिन वर्तमान-काल में यह दिन शिक्षक दिवस के रूप मे मनाया जाना लगा है अर्थात् शिक्षक औऱ विद्यार्थी का दिन। गुरू औऱ शिक्षक में बहुत अन्तर है। शिक्षक अपने विद्यार्थियों को केवल शिक्षा देता है औऱ विद्यार्थी अपने शिक्षक से विद्या को ग्रहण करते हैं, परन्तु जो गुरू होता है वह अपने शिष्यों को शिक्षा, विद्या सहित ज्ञान देता है। ज्ञान जिसका प्रयोग शिष्य अपने सम्पूर्ण जीवन-काल तक कर सकता है।
प्राचीनकाल से ही गुरूओं का बोलबाला रहा है और गुरू के दिये ज्ञान पर ही शिष्य अमल करते आए हैं। मगर गुरू शब्द ने जब से शिक्षक का रूप ले लिया है, तबसे शिक्षक औऱ विद्यार्थियों के बीच एक अलग ही अन्तर सा पैदा हो गया है। गुरूओं से हटकर शिक्षकों ने अपने मूल्यों में परिबर्तन कर लिया है। इन परिवर्तनों के कारण ही अब शिक्षकों का अपने विद्यार्थियों के प्रति उतना लगाव नही रह गया है और न ही उनके प्रति उतना निष्ठा का भाव रह गया है।
इसलिए प्रत्येक शिक्षक को गुरू बनकर अपने शिष्य को गुरू-ज्ञान देना चाहिए और प्रत्येक विद्यार्थी को एक सच्चे शिष्य के रूप मे उस गुरू-ज्ञान को ग्रहण कर अपने जीवन में उतारना चाहिए। तब तो शिक्षक दिवस मनाये जाने का कोई मतलब बनता है, अन्यथा अन्य कई दिवसों की तरह यह दिवस भी सिर्फ ढोंग दिवस का ही प्रारूप बनकर रह जायेगा।
एक सच्चे शिष्य हेतु दो पंक्तियाँ प्रस्तुत हैः-

बनकर दिखलाओ सच्चा शिष्य
औऱ अर्जित करो गुरू का ज्ञान,
गुरू के ज्ञान को जीवन में उतारो
और सारे जग में बढाओ गुरू का मान।

सोमवार, 23 अगस्त 2010

पर्व राखी पूर्णिमा का




राखी पूर्णिमा अर्थात् रक्षा बन्धन, एक ऐसा पर्व जिससे वस्तुतः सभी लोग भलिभाँति परिचित होंगे। इस पर्व में बहन अपने भाई के माथे में तिलक कर और कलाई में राखी बाँधकर भगवान से भाई की रक्षा की तथा लम्बी उम्र की कामना करती हैं, जबकि भाई, बहन की तउम्र रक्षा करने की शपथ लेता है। रक्षा बन्धन पर्व का इतिहास काफी पुराना रहा है।
प्राचीनकाल से ही भारत देश में यह पर्व काफी हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता रहा है। भाई-बहन के पावन रिश्ते के कई जीवान्त उदा0 भी रहे हैं, जिसमें भाई ने बहन की राखी को स्वीकार कर बहन की रक्षा की है। उदा0 स्वरूपः- 15वीं शताब्दी में चितौङ की महारानी कर्णवती नें अपने राज्य को बचाने के लिए मुगल बाहशाह हुमांयु को राखी भेजी थी, जिसे हुमाँयु ने सहर्ष स्वीकार कर रानी कर्णवती को अपनी बहन माना था और उसके राज्य को बचाया था। इसी तरह राजा एलेक्सजेन्डर की पत्नी ने अपने राज्य को बचाने के लिए राजा पुरू को राखी भेजी थी, जिसे राजा पुरू ने भी स्वीकार कर लिय़ा था। इसी तरह भारतीय इतिहास में भाई-बहन के इस रिश्ते के और भी कई उदा0 मिलते हैं, चाहे वह कृष्ण-द्रौपदी रहें हों या यामा-यमुना सभी नें इस परम्परा को जारी रखा।
रक्षा बन्धन का पर्व भारत के अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग नामों से जाना जाता है। जैसे भारत के उत्तरी और दक्षिणी हिस्सें में इसे राखी पूर्णिमा के नाम से जाना जाता है। उङीसा में इसे ग्रहम पूर्णिमा तथा मध्य भारत में इसे कजरी पूर्णिमा के नाम से जाना जाता है। भारत के कुछ वेस्टर्न हिस्सों में इस पर्व को नारियल पूर्णिमा के नाम से भी जाना जाता है। इसके अलावा कुछ जगहों में इस पर्व को पवित्रोपन, जन्यो पुन्यु तथा उपकारमम इत्यादि नाम से भी जाना जाता है।

भाई-बहन के इस पावन हर्षोल्लास पर्व के सम्बन्ध में कुछ लाइनें कविता स्वरूप प्रस्तुत हैः-

सुहावने मौसम में रक्षा बन्धन की बहार आई
प्यारी बहन खुशियों की शौगात लाई,
रंग-बिरंगी राखी से सजे भाई की कलाई
हमेशा खुश रहें बहन और भाई।

ऐसे ही बनी रहे इन दोनों मे मिठास
न आये कभी इनके रिश्तें में खटास,
ये है भाई-बहन का पावन पर्व
होना चाहिए हम सबको गर्व।

मंगलवार, 17 अगस्त 2010

जहाँ चाह वहाँ राह




चल पङे हैं मंजिल की ओर,

न खाने का ठिकाना न रहने का।
दिल में जज्बा और आँखों में चमक लिए,
करें हैं हौसले बुलंद ।

लम्बा है सफर और कठिन है डगर,
पर यकीन है खुद पर ।
न रूकना है, न झुकना है,
सिर्फ लक्ष्य की ओर बढना है।

राह में अङचने और आयेंगी रूकावटें,
पर संघर्ष करते जाना है ।
कठिन मेहनत और कर्म से
लक्ष्य को पाना है ।

मन में है विश्वास की मंजिल पायेगें,
आगे बढके कुछ कर दिखायेगें।

एकबार मंजिल को पाकर,
फिर आगे बढते ही जाना है।
मंजिल में पहुँचकर,
फिर नहीं घबङाना है।

पाये हुए लक्ष्य पर,
खुद को साबित करना है।
जब खुद मे है यकीन और मन में है विश्वास
तो फिर काहे का डरना है।

शनिवार, 14 अगस्त 2010

नाग पंचमी औऱ सांपो की आफत


हिन्दू धर्म में नाग पंचमी का पर्व एक विशेष महत्व रखता है। इस दिन कई मंदिरों में भव्य सजावट होती है, विशेषकर वे मंदिर जहाँ नागों के देवता अर्थात भगवान शंकर की पूजा होती है। इस दिन सपेरे जंगलों से एक से बढकर एक प्रजाति के साँपों को पकङकर लाते है और भक्तों की भक्ति की आङ में इनका प्रयोग अपने पेट-पालन के लिए करते हैं। ये दिन संपेरों के लिए विशेष कमाई का दिन होता है। संपेरों को इस बात की बिल्कुल भी फिक्र नहीं होती है कि वो जिस जानवर का प्रयोग करके अपना पेट-पालन के लिए कर रहे है, वास्तव में उस जानवर को भी पेट की भूख मिटाने के लिए कुछ मिला है या नहीं।

ऐसा प्रचलन है कि नाग पंचमी में भक्त सांपो को दूध पिलाते हैं और इसे बहुत पुण्य का कार्य समझा जाता है। लेकिन ये बहुत ही कम लोगों को पता होगा कि सांप दूध नही पीते हैं, वो तो इनके मालिक अर्थात सपेरे साँपों को इतने दिन से भूखा रखे होते हैं कि जो भी साँप को दूध देता है, तो वह उसे भूख के कारण तुरन्त पी जाता है। साँपो को भूखा रखने से सपेरों को एक और फायदा होता है कि कई दिन से भूखा रहने के कारण साँप इतना कमजोर हो जाता है कि उसके शरीर की सारी फुर्ती समाप्त हो चुकी होती है और वह चुपचाप सपेरे की डलिया में भक्तों के दर्शनार्थ पङा रहता है।

यद्यपि नाग पंचमी बहुत ही महत्वपूर्ण पर्व है। लेकिन शायद लोगों को यह नही पता है कि वो जिसकी पूजा कर रहे हैं, जिसे दूध पिलाके पुण्य कमा रहे हैं, वास्तव में वो जानवर इन संपेरों को और उसके दर्शनाभिलाषी भक्तों को क्या आर्शीवाद दे रहा होगा।

रविवार, 8 अगस्त 2010

अध्ययन का बदलता स्वरूप


जिस तरह से समय परिवर्तन होता जाता है, उसी तरह से व्यक्ति का जीवन भी परिवर्तित होता रहता है। व्यक्ति की भावनाएँ, रहन-सहन का ढंग, खान-पान, पहनावा आदि सभी में कुछ न कुछ परिवर्तन होता जाता है। इसको इस तरह भी कह सकते हैं कि व्यक्ति समय के अनुसार ढलता जाता है।

इसी तरह अध्ययन के मामले में भी यही फार्मूला लागू होता है कि समय के साथ पढाई करने का ढंग परिवर्तित होता जा रहा है। अगर प्राचीनकाल से अबतक अध्ययन करने का ढंग का विश्लेषण किया जा जाये तो काफी परिवर्तन दिखाई देतें हैं।

प्राचीनकाल में एक विद्यार्थी धोती-कुर्ता पहनकर स्वच्छ हवा में वृक्ष के नीचे धरती में बैठकर अध्ययन करता था , औऱ ज्यादातर अध्ययन स्वरूप मौखिक तथा प्रैक्टिकल ज्ञान ही प्राप्त करता था एवं एक शिष्य गुरू को गुरू-दक्षिणा स्वरूप धन न देकर जो भी उसके सामर्थ्य में होता था, वो देता था। इसके साथ ही विद्यार्थी को अपने गुरू से किसी भी प्रकार के ट्यूशन इत्यादि पढने की आवश्यकता भी नही पढती थी। धीरे-धीरे समय परिवर्तित होता गया औऱ अध्ययन करने का ढंग भी बदलता गया। कुछ समय बाद गुरूकुल खुल गये, जहाँ कई विद्यार्थी एक साथ अध्ययन करते थे ओर साथ ही वहाँ रहने, उठने-बैठने की भी व्यवस्था होती थी। समय औऱ परिवर्तित हुआ तथा स्कूल-कालेज खुल गये, जहाँ विद्यार्थी स्टूल , मेज, कुर्सी इत्यादि में बैठकर, कापी-किताबों से अध्ययन करने लगे और अध्यापक विद्यार्थियों को श्यामपट्ट पर शिक्षा देने लगे। लेखन के लिए पेन्सिल, पेन, रबर इत्यादि का प्रयोग होने लगा। धीरे-धीरे समय औऱ आगे बढा तो स्कूल-कालेज के साथ विद्यार्थी ट्यूशन भी पढने लगे। फिर कुछ समय बाद कोचिंग सेन्टर भी खुल गये। देखते ही देखते कोचिंग सेन्टरों की संख्या में तेजी से बढोत्तरी हुई तो कोचिंगो में जाने वाले विद्यार्थियों की संख्या भी तेजी से बढने लगी और ब्लैक बोर्ड के स्थान पर व्हाइट बोर्ड प्रयोग किये जाने लगा। अध्ययन का यही ढंग स्कूलों मे भी लागू हो गया। इसके बाद जो समय आया वह अध्ययन की दृष्टि से काफी परिवर्तनशील था। इस समय तेजी से स्कूल-कालेजों के साथ इंजीनियरिंग कालेज, स्नातक स्तर के कालेज तथा कई प्राईवेट संस्थान खुल गये। इनमें से बहुत से संस्थान विद्यार्थियों को पढाई के साथ-साथ हाँस्टल सुविधा, इन्वर्टर-जनरेटर सुविधा तथा ए0सी0 जैसी सुविधायें भी देने लगे। जिससे लोगों का इनके प्रति आर्कषण स्वाभाविक था। कई वर्षों तक ये सब चलता रहा और वह समय भी आ गया अर्थात वर्तमान समय जब एक विद्यार्थी शानदार कुर्सियों मे बैठकर एसी की ठंडक में प्रोजेक्टर तथा कम्प्यूटर की सहायता से सभी सुख-सुविधाओ सहित अध्ययन करने लगा।

अब भविष्य का तो पता नहीं पर अगर अध्ययन परिवर्तन की यही गति रही तो वह दिन भी दूर नही, जब विद्यार्थियों को स्कूल-कालेजों में शिक्षा एसी क्लास-रूम में बेड में बैठाकर दी जायेगी और यह छूट रहेगी कि कोई भी विद्यार्थी जब चाहे कुछ भी खा-पी सकता है कहीं भी टहलने जा सकता है। जब लौटकर आयेगा तो वह जहाँ पढाई छोङकर गया था. उसी के आगे से उसे पढाया जाने लगेगा।



सोमवार, 2 अगस्त 2010

जय हो कम्प्यूटर बाबा की


जय हो कम्प्यूटर बाबा की


हमारा काम करते आसान

बढाते हैं हमारा ज्ञान

करनी हो गणना चाहे करना हो मिलान

सेकेण्डो में खोज लेते हैं ऐच्छिक खान

देखना हो प्रोग्राम या सुनना हो गाना

कुछ भी नही है उनके लिए अनजाना

लिखो पत्र , खेलो खेल

बनाओ मित्र , भेजो ई-मेल

ज्ञान से भरा है इनका भण्डार

डाटा सहेज कर भी लेते नही डकार

चाहे हो कैमरा या हो इयर फोन

करनी चैटिंग या सुननी हो रिंगटोन

सभी को देते है मनचाही सुविधा

खूब करो यूज, अब काहे की दुविधा

जय हो कम्प्यूटर बाबा की.......

शनिवार, 31 जुलाई 2010

क्या दोस्ती जरूरी है ?



आज के समय में हर साल कई दिवस आते हैं और चले जाते है। बहुत लोगों को इनके बारे में पता भी नही होता है या कह लिजिए की वो जानना भी नही चाहते हैं। परन्तु कुछ ऐसे दिवस भी होते हैं जिन्हे कोई जानकर भी भूलना नही चाहेगा, जैसेः- फादर-डे, मदर-डे औऱ फ्रेण्डशिप-डे।

विगत कई वर्षों से फ्रेण्डशिप-डे मनाने की परम्परा चली आ रही है और यह दिवस केवल भारत में ही नही अपितु सम्पूर्ण विश्व में अति उल्लास और आनन्द के साथ मनाया जाता है। इस दिन कई बिछङे दोस्त, कई पुराने दोस्त एक-दूसरे से मिलकर अपनी दोस्ती के सिलसिले को और आगे बढाते है। अब दोस्तों में इस दिन एक-दूसरे को फ्रेण्डशिप-बैण्ड बाँधने का भी रिवाज हो गया है, पर ऐसा कोई जरूरी नहीं है। दोस्ती एक-दूसरे के प्रति दिल से होनी चाहिये, जो वर्षों तक एक-दूसरे के सुख-दुःख में काम आ सके।

दोस्त कोई भी हो सकता है, यह कोई जरूरी नही है कि दोस्त कोई बाहरी व्यक्ति ही हो। दोस्ती आपके परिवारिक सदस्यों में भी हो सकता है। आपकी माँ, भाई, बहन, पिता व अन्य कोई भी परिवारिक सदस्य आपका दोस्त हो सकता है। फ्रेण्डशिप-डे का मतलब केवल यह नही है कि एक दिन आया, दोस्तों से कुछ पल के लिए मिल लिया गया या फोन से ही फ्रेण्डशिप-डे पर बधाई दे-दी गई या फिर फ्रेण्डशिप बैण्ड बाँधकर खाना-पूर्ति पूरी कर दी, बस हो गया। बल्कि फ्रेण्डशिप-डे दोस्तों को एक-दूसरे के औऱ करीब लाने, एक-दूसरे के सुख-दुःख बाँटने, आपस में बाते शेयर करने और एक-दूसरे की सहायता करने के उद्देश्य से मनाया जाता है। फ्रेण्डशिप-डे के उपलक्ष्य पर कुछ लाइनें रचना स्वरूप प्रस्तुत हैं :-


दोस्त ही दोस्त के काम आता है,

दोस्त ही संबध मधुर बनाता है।

दोस्त होते हैं सुख-दुःख का सहारा,

दिल से दोस्ती ही लक्ष्य हमारा।

दोस्त से मिलाओ दिल से हाथ,

उठाओ आनंद और जीवन भर साथ।

दोस्ती न होती तो बेकार था संसार,

न मिलते दोस्त, न उनका प्यार।

मंगलवार, 20 जुलाई 2010

महाप्रयोग से क्या लाभ ?



जेनेवा में वैज्ञानिकों द्वारा ब्रह्नाण्ड की उत्पत्ति को जानने के उद्देश्य से महामशीन लगाई गई है। ऐसा अनुमान है कि वैज्ञानिकों द्वारा जेनेवा में चल रहे इस महामशीन के महाप्रयोग से जहाँ एक ओऱ ब्रह्नाण्ड की उत्पत्ति की गुत्थी सुलझने की उम्मीद है, तो वहीं दूसरी ओऱ इसके प्रयोग के चलते धरती के अन्दर होने वाली नाभिकीय प्रक्रियाओं से कैंसर जैसे असाध्य रोगों से निपटने के लिए भी अतिमहत्वपूर्ण तथ्य मिलने की उम्मीद है। इसके साथ ही इसके नाभिकीय कचरे के निपटाने एवं मौसम परिवर्तन हेतु भी कई जानकारी मिलने की उम्मीद जताई जा रही है।

वास्तव में महामशीन का सफलतम प्रयोग एक बङी उपलब्धि की ओऱ इशारा करता है। परन्तु अगर ये प्रयोग असफल होता है, तो इससे होने वाली तबाही का मंजर हमारी सोच से भी परे होगा।

शनिवार, 10 जुलाई 2010

शिक्षा के क्षेत्र में विदेशी दखल


आज प्राथमिक शिक्षा  से लेकर उच्च शिक्षा तक धनाधीन होने के कारण शिक्षा क्षेत्र व्यवसाय क्षेत्र में तब्दील हो गया है। इसी कारण से इस क्षेत्र में विदेशी विश्वविद्यालयों से सम्बद्धता को ऊत्क्रष्टता के प्रमाण के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। जिसके कारण हमारी प्रतिभा का पलायन जारी है। भारत देश में प्रबंधन संस्थानों कि संख्या लगातार बढती जा रही है, लेकिन प्रबंधन बिगड़ता जा रहा है। देश में प्रबंधन संस्थानों कि संख्या बढ़ना एक अच्छा सन्देश है, परन्तु इन संस्थानों से निकलने वाले ५ प्रतिशत युवा भी स्वरोजगार कि ओर उन्मुख नहीं होते है, बल्कि बहुराष्ट्रीय कंपनी में अपनी सेवाएं उपलब्ध कराते है। इसके साथ ही बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा  अच्छे रोजगार के नाम पर युवाओं का शोषण भी जारी है। ये बहुराष्ट्रीय कंपनियां इन युवायों को एक आयु तक प्रयोग करने के बाद कंपनी से निकल देते है। इसके साथ ही इन युवाओं के बहुराष्ट्रीय कंपनियों में कार्य करने के कारण ये अपनी संस्कृति एवं रीति-रिवाजों से भी दूर हो जाते है।

गुरुवार, 10 जून 2010

अपनी माँ की अनुपस्थिति में बच्चे क्यों रोते है ?



प्रायः देखा गया है कि कुछ बच्चे अपनी माँ की अनुपस्थिति में बहुत रोते है और उनके लिए अपनी माँ की अनुपस्थिति असहनीय होती है,पर इसके विपरीत कुछ बच्चों में माँ की अनुपस्थिति उनपर कोई विशेष प्रभाव नहीं डालती है। वैज्ञानिकों ने शिशुओं में दिखने वाले इस अंतर के जेनेटिक आधार का पता लगाने का प्रयास किया।
शिशुओं का अपनी माँ के प्रति विशेष लगाव उनकी विशिष्ट जीन-संरचना के कारण होता है। शोध के अनुसार जब बच्चे अपनी माँ के साथ होते है, तब उनके शरीर में ओपिआँइड नामक प्राकृतिक रसायन उत्पन्न होता है। जब ये रसायन उनके मस्तिष्क में पहुँचता है, तो बच्चों को कुछ देर के लिए आनंद एवं संतोष की अनुभूति होती है। यह रसायन ठीक वैसा ही कार्य करता है जैसा मार्फीन का नशा। बस अंतर यह होता है कि इस रसायन के प्रभाव से बच्चा नशे के विपरीत स्फूर्त रहता है।
वैज्ञानिकों के अनुसार यदि मष्तिष्क में ओपिआँइड को बनाने वाले जीन में कुछ परिवर्तन कर दिया जाये तो शिशु इस रसायन के प्रति अत्यधिक सवेदनशील हो जाता है।

शनिवार, 29 मई 2010

महत्व ज्योतिर्लिंग का



क्या आप जानते है क़ि ज्योतिर्लिंग क्या है ? कहाँ है ?
ज्योतिर्लिंग का आशय शिवजी के प्रतीक चिन्ह के रूप से है। त्रेता युग की बात है, रावण शिवजी का परम भक्त था और रावण ने शिवजी से यह वरदान माँगा था क़ि वह शिवजी को श्रीलंका में स्थापित करना चाहता है। लेकिन शिवजी यह नहीं चाहते थे, लेकिन रावण को वरदान जो दिया था क़ि जो मांगोगे वही मिलेगा। रावण ने शिवजी को उठाकर ले जाना चाहा तो शिवजी अपना वजन बढाकर गिर पड़े। तभी से शिवलिंग की स्थापना गोला-गोकर्णनाथ (लखीमपुर-खीरी) में हुई , जो आज भी सर्वव्यापी है। भारत देश में कुल १२ शिवलिंग है जैसे- सोमनाथ (सौराष्ट्र) , महाकालेश्वर (उज्जैन) , ओंकारेश्वर (नर्मदा तीर) , बद्रीनाथ (उत्तराखंड) , विश्वेश्वर (वाराणसी) , रामेश (सेतुबंधु रामेश्वरम) आदि । भगवान भोलेनाथ के नाम पर प्रसिद्ध इन शिवलिंगों को देखने के लिए श्रद्धालु वर्ष-भर आते-जाते रहते है , जो इनके महत्व को दर्शता है।

शनिवार, 8 मई 2010

समाज सेवा में युवा शक्ति



आज के समय में हमारी युवा शक्ति आगे बढ़ रही है। हमारी युवा शक्ति भारत में ही नहीं अपितु विदेशों में भी देश का नाम रोशन कर रही है। लेकिन समाज सेवा के रूप में हमारे युवा क्या योगदान दे सकते है , यह एक प्रश्न है?
वर्तमान समय में हमारा देश कई समस्याओं से जूझ रहा है। आज भी हमारे देश की कुल जनसँख्या का बहुत बड़ा भाग निरक्षर है, साथ ही आज भी कई गाँव शहरों से अलग है। आज भी भारतीय समाज में कई स्थानों में धार्मिक अन्धविश्वास तथा कई कुरुतियाँ जैसे जादू-टोना ,टोटका आदि प्रचलित है। ऐसे में हमें एक ऐसे वर्ग की जरुरत है जो उस समाज का कायाकल्प कर सके तथा उन्हें नई विचारधाराओं से अवगत करा सके। इन सभी कुरूतियों को दूर कर नई विचारधारा को युवा वर्ग ही सम्पादित कर सकता है।
आज भी हमारे देश के भिन्न-भिन्न स्थानों में कूड़े के ढेर लगे मिलेंगे, सड़के टूटी हुई,उन्मे नाली का बहता हुआ पानी मिल जायेगा । ऐसे में युवा वर्ग अपने खाली समय में समय का सदुपयोग साफ-सफाई करने में,लोगों को जागरूक करने में कर सकता है। आज समय की मांग के अनुसार हमें एक ऐसी क्रांति कि आवश्यकता है जिसका नेतृत्व युवा वर्ग करे, लेकिन यह क्रांति सतारात्मक विचारों कि होनी चाहिए जो सारे विश्व को बदल दे।

रविवार, 2 मई 2010

दिमाग पर बढ़ता बोझ




वर्तमान समय में मनुष्य के दिमाग पर लगातार कार्य का बोझ बढ़ता ही जा रहा है । एक समय में एक व्यक्ति का दिमाग हर तरफ कार्य कर रहा है । उदाहरण के लिए - एक साधारण व्यक्ति एक ही समय में गाने सुनने के साथ लिखने का कार्य भी करता है तथा उसी समय वह व्यक्ति किसी अन्य कार्य के बारे में योजना भी बनता रहता है । इस प्रकार उस व्यक्ति का दिमाग एक ही समय में तीन कार्य एक साथ संपन्न करता है।
एक ही समय में एक से अधिक कार्य संपन्न करने हेतु दिमाग का अधिक उपयोग करने से एक व्यक्ति विशेष को कुछ लाभ पहुँचता है , तो कुछ हानि भी होती है । लाभ यह होता है उस व्यक्ति विशेष का दिमाग किसी भी कार्य को करने , सोचने , या योजना बनाने में तुरंत प्रतिक्रिया देता है तथा व्यक्ति को क्या करना चाहिए , इसके लिए भी तुरंत निर्देशित करता है। दिमाग के अधिक प्रयोग से व्यक्ति के ज्ञान में भी वृद्धि होती है।
दिमाग का अधिक उपयोग व्यक्ति विशेष के शरीर को हानि भी पहुंचाता है। यदि कोई व्यक्ति दिमाग का लगातार बहुत अधिक प्रयोग करता है , तो धीरे-धीरे उस व्यक्ति का दिमाग उसी मापन से विकसित होता जाता है और एक समय ऐसा आता है , जब उस व्यक्ति द्वारा कोई भी दिमाग सम्बंधित कार्य नहीं किया जाता है , तब भी उस व्यक्ति के दिमाग में लगातार रोजाना उपयोग के मपनार्थ क्रियाएं होती रहती है और वह लगातार उसी हिसाब से प्रतिक्रियाएं देता रहता है। फलस्वरूप व्यक्ति विछिप्त हो जाता है। अकेले में या सबके सामने न जाने क्या-क्या बोलता रहता है, इसी का उदः है।
अगर इसी प्रकार व्यक्ति विशेष के दिमाग पर लगातार बोझ बढ़ता रहा , तो वह दिन दूर नहीं, जब उन सभी कार्यों को एक साथ संपन्न करने वाले दिमागी मनुष्य विकसित हो जायेंगे।

शनिवार, 10 अप्रैल 2010

क्या अकबर पढ़ा-लिखा नहीं था ?



छोटी आयु में राज्य की जिम्मेदारियां सँभालने के कारण अकबर पढाई नहीं कर पाया था । आश्चर्यजनक तथ्य यह है की उसे न तो लिखना आता था और ना ही पढना आता था । पढना-लिखना ना आने के बावजूद भी वह परिस्थितियों से अंजान नहीं था । ज्ञान के रूप में उसने जो कुछ भी प्राप्त किया केवल सुनकर ही प्राप्त किया । वह बड़े-बड़े दार्शनिकों, मुल्ला-मौलवियों के साथ बैठकर चर्चा किया करता था . इसके लिए अकबर ने इबादतखाना बनवाया था .