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सोमवार, 23 अगस्त 2010

पर्व राखी पूर्णिमा का




राखी पूर्णिमा अर्थात् रक्षा बन्धन, एक ऐसा पर्व जिससे वस्तुतः सभी लोग भलिभाँति परिचित होंगे। इस पर्व में बहन अपने भाई के माथे में तिलक कर और कलाई में राखी बाँधकर भगवान से भाई की रक्षा की तथा लम्बी उम्र की कामना करती हैं, जबकि भाई, बहन की तउम्र रक्षा करने की शपथ लेता है। रक्षा बन्धन पर्व का इतिहास काफी पुराना रहा है।
प्राचीनकाल से ही भारत देश में यह पर्व काफी हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता रहा है। भाई-बहन के पावन रिश्ते के कई जीवान्त उदा0 भी रहे हैं, जिसमें भाई ने बहन की राखी को स्वीकार कर बहन की रक्षा की है। उदा0 स्वरूपः- 15वीं शताब्दी में चितौङ की महारानी कर्णवती नें अपने राज्य को बचाने के लिए मुगल बाहशाह हुमांयु को राखी भेजी थी, जिसे हुमाँयु ने सहर्ष स्वीकार कर रानी कर्णवती को अपनी बहन माना था और उसके राज्य को बचाया था। इसी तरह राजा एलेक्सजेन्डर की पत्नी ने अपने राज्य को बचाने के लिए राजा पुरू को राखी भेजी थी, जिसे राजा पुरू ने भी स्वीकार कर लिय़ा था। इसी तरह भारतीय इतिहास में भाई-बहन के इस रिश्ते के और भी कई उदा0 मिलते हैं, चाहे वह कृष्ण-द्रौपदी रहें हों या यामा-यमुना सभी नें इस परम्परा को जारी रखा।
रक्षा बन्धन का पर्व भारत के अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग नामों से जाना जाता है। जैसे भारत के उत्तरी और दक्षिणी हिस्सें में इसे राखी पूर्णिमा के नाम से जाना जाता है। उङीसा में इसे ग्रहम पूर्णिमा तथा मध्य भारत में इसे कजरी पूर्णिमा के नाम से जाना जाता है। भारत के कुछ वेस्टर्न हिस्सों में इस पर्व को नारियल पूर्णिमा के नाम से भी जाना जाता है। इसके अलावा कुछ जगहों में इस पर्व को पवित्रोपन, जन्यो पुन्यु तथा उपकारमम इत्यादि नाम से भी जाना जाता है।

भाई-बहन के इस पावन हर्षोल्लास पर्व के सम्बन्ध में कुछ लाइनें कविता स्वरूप प्रस्तुत हैः-

सुहावने मौसम में रक्षा बन्धन की बहार आई
प्यारी बहन खुशियों की शौगात लाई,
रंग-बिरंगी राखी से सजे भाई की कलाई
हमेशा खुश रहें बहन और भाई।

ऐसे ही बनी रहे इन दोनों मे मिठास
न आये कभी इनके रिश्तें में खटास,
ये है भाई-बहन का पावन पर्व
होना चाहिए हम सबको गर्व।

मंगलवार, 17 अगस्त 2010

जहाँ चाह वहाँ राह




चल पङे हैं मंजिल की ओर,

न खाने का ठिकाना न रहने का।
दिल में जज्बा और आँखों में चमक लिए,
करें हैं हौसले बुलंद ।

लम्बा है सफर और कठिन है डगर,
पर यकीन है खुद पर ।
न रूकना है, न झुकना है,
सिर्फ लक्ष्य की ओर बढना है।

राह में अङचने और आयेंगी रूकावटें,
पर संघर्ष करते जाना है ।
कठिन मेहनत और कर्म से
लक्ष्य को पाना है ।

मन में है विश्वास की मंजिल पायेगें,
आगे बढके कुछ कर दिखायेगें।

एकबार मंजिल को पाकर,
फिर आगे बढते ही जाना है।
मंजिल में पहुँचकर,
फिर नहीं घबङाना है।

पाये हुए लक्ष्य पर,
खुद को साबित करना है।
जब खुद मे है यकीन और मन में है विश्वास
तो फिर काहे का डरना है।

शनिवार, 14 अगस्त 2010

नाग पंचमी औऱ सांपो की आफत


हिन्दू धर्म में नाग पंचमी का पर्व एक विशेष महत्व रखता है। इस दिन कई मंदिरों में भव्य सजावट होती है, विशेषकर वे मंदिर जहाँ नागों के देवता अर्थात भगवान शंकर की पूजा होती है। इस दिन सपेरे जंगलों से एक से बढकर एक प्रजाति के साँपों को पकङकर लाते है और भक्तों की भक्ति की आङ में इनका प्रयोग अपने पेट-पालन के लिए करते हैं। ये दिन संपेरों के लिए विशेष कमाई का दिन होता है। संपेरों को इस बात की बिल्कुल भी फिक्र नहीं होती है कि वो जिस जानवर का प्रयोग करके अपना पेट-पालन के लिए कर रहे है, वास्तव में उस जानवर को भी पेट की भूख मिटाने के लिए कुछ मिला है या नहीं।

ऐसा प्रचलन है कि नाग पंचमी में भक्त सांपो को दूध पिलाते हैं और इसे बहुत पुण्य का कार्य समझा जाता है। लेकिन ये बहुत ही कम लोगों को पता होगा कि सांप दूध नही पीते हैं, वो तो इनके मालिक अर्थात सपेरे साँपों को इतने दिन से भूखा रखे होते हैं कि जो भी साँप को दूध देता है, तो वह उसे भूख के कारण तुरन्त पी जाता है। साँपो को भूखा रखने से सपेरों को एक और फायदा होता है कि कई दिन से भूखा रहने के कारण साँप इतना कमजोर हो जाता है कि उसके शरीर की सारी फुर्ती समाप्त हो चुकी होती है और वह चुपचाप सपेरे की डलिया में भक्तों के दर्शनार्थ पङा रहता है।

यद्यपि नाग पंचमी बहुत ही महत्वपूर्ण पर्व है। लेकिन शायद लोगों को यह नही पता है कि वो जिसकी पूजा कर रहे हैं, जिसे दूध पिलाके पुण्य कमा रहे हैं, वास्तव में वो जानवर इन संपेरों को और उसके दर्शनाभिलाषी भक्तों को क्या आर्शीवाद दे रहा होगा।

रविवार, 8 अगस्त 2010

अध्ययन का बदलता स्वरूप


जिस तरह से समय परिवर्तन होता जाता है, उसी तरह से व्यक्ति का जीवन भी परिवर्तित होता रहता है। व्यक्ति की भावनाएँ, रहन-सहन का ढंग, खान-पान, पहनावा आदि सभी में कुछ न कुछ परिवर्तन होता जाता है। इसको इस तरह भी कह सकते हैं कि व्यक्ति समय के अनुसार ढलता जाता है।

इसी तरह अध्ययन के मामले में भी यही फार्मूला लागू होता है कि समय के साथ पढाई करने का ढंग परिवर्तित होता जा रहा है। अगर प्राचीनकाल से अबतक अध्ययन करने का ढंग का विश्लेषण किया जा जाये तो काफी परिवर्तन दिखाई देतें हैं।

प्राचीनकाल में एक विद्यार्थी धोती-कुर्ता पहनकर स्वच्छ हवा में वृक्ष के नीचे धरती में बैठकर अध्ययन करता था , औऱ ज्यादातर अध्ययन स्वरूप मौखिक तथा प्रैक्टिकल ज्ञान ही प्राप्त करता था एवं एक शिष्य गुरू को गुरू-दक्षिणा स्वरूप धन न देकर जो भी उसके सामर्थ्य में होता था, वो देता था। इसके साथ ही विद्यार्थी को अपने गुरू से किसी भी प्रकार के ट्यूशन इत्यादि पढने की आवश्यकता भी नही पढती थी। धीरे-धीरे समय परिवर्तित होता गया औऱ अध्ययन करने का ढंग भी बदलता गया। कुछ समय बाद गुरूकुल खुल गये, जहाँ कई विद्यार्थी एक साथ अध्ययन करते थे ओर साथ ही वहाँ रहने, उठने-बैठने की भी व्यवस्था होती थी। समय औऱ परिवर्तित हुआ तथा स्कूल-कालेज खुल गये, जहाँ विद्यार्थी स्टूल , मेज, कुर्सी इत्यादि में बैठकर, कापी-किताबों से अध्ययन करने लगे और अध्यापक विद्यार्थियों को श्यामपट्ट पर शिक्षा देने लगे। लेखन के लिए पेन्सिल, पेन, रबर इत्यादि का प्रयोग होने लगा। धीरे-धीरे समय औऱ आगे बढा तो स्कूल-कालेज के साथ विद्यार्थी ट्यूशन भी पढने लगे। फिर कुछ समय बाद कोचिंग सेन्टर भी खुल गये। देखते ही देखते कोचिंग सेन्टरों की संख्या में तेजी से बढोत्तरी हुई तो कोचिंगो में जाने वाले विद्यार्थियों की संख्या भी तेजी से बढने लगी और ब्लैक बोर्ड के स्थान पर व्हाइट बोर्ड प्रयोग किये जाने लगा। अध्ययन का यही ढंग स्कूलों मे भी लागू हो गया। इसके बाद जो समय आया वह अध्ययन की दृष्टि से काफी परिवर्तनशील था। इस समय तेजी से स्कूल-कालेजों के साथ इंजीनियरिंग कालेज, स्नातक स्तर के कालेज तथा कई प्राईवेट संस्थान खुल गये। इनमें से बहुत से संस्थान विद्यार्थियों को पढाई के साथ-साथ हाँस्टल सुविधा, इन्वर्टर-जनरेटर सुविधा तथा ए0सी0 जैसी सुविधायें भी देने लगे। जिससे लोगों का इनके प्रति आर्कषण स्वाभाविक था। कई वर्षों तक ये सब चलता रहा और वह समय भी आ गया अर्थात वर्तमान समय जब एक विद्यार्थी शानदार कुर्सियों मे बैठकर एसी की ठंडक में प्रोजेक्टर तथा कम्प्यूटर की सहायता से सभी सुख-सुविधाओ सहित अध्ययन करने लगा।

अब भविष्य का तो पता नहीं पर अगर अध्ययन परिवर्तन की यही गति रही तो वह दिन भी दूर नही, जब विद्यार्थियों को स्कूल-कालेजों में शिक्षा एसी क्लास-रूम में बेड में बैठाकर दी जायेगी और यह छूट रहेगी कि कोई भी विद्यार्थी जब चाहे कुछ भी खा-पी सकता है कहीं भी टहलने जा सकता है। जब लौटकर आयेगा तो वह जहाँ पढाई छोङकर गया था. उसी के आगे से उसे पढाया जाने लगेगा।



सोमवार, 2 अगस्त 2010

जय हो कम्प्यूटर बाबा की


जय हो कम्प्यूटर बाबा की


हमारा काम करते आसान

बढाते हैं हमारा ज्ञान

करनी हो गणना चाहे करना हो मिलान

सेकेण्डो में खोज लेते हैं ऐच्छिक खान

देखना हो प्रोग्राम या सुनना हो गाना

कुछ भी नही है उनके लिए अनजाना

लिखो पत्र , खेलो खेल

बनाओ मित्र , भेजो ई-मेल

ज्ञान से भरा है इनका भण्डार

डाटा सहेज कर भी लेते नही डकार

चाहे हो कैमरा या हो इयर फोन

करनी चैटिंग या सुननी हो रिंगटोन

सभी को देते है मनचाही सुविधा

खूब करो यूज, अब काहे की दुविधा

जय हो कम्प्यूटर बाबा की.......